kuldevi and kuldevta के बारे में जानिये
kuldevi and kuldevta भारत में अलग अलग समाज व जाति है। सभी समाज में कुलदेवी एवं देवताओं को मान्यता प्राप्त है आखिर क्या है ये कुलदेवी और देवता आज हम इसी संबंध में चर्चा करेंगे। लेकिन सबसे पहले अगर आपने जाट जागरण चैनल सब्सक्राइब नहीं किया है तो जल्द कीजिए ताकि आपको ऐसी रोचक जानकारी व समाज से संबंधित जानकारी प्राप्त हो सकें।
तो अब बात करते है कुलदेवी व देवता kuldevi and kuldevta की। इन दोनों के साथ साथ हमारे समाज में पितृदेव को माना जाता है। भारतीय समाज व हमारे पूर्वज हजारोंं वर्षों से अपने कुलदेवी व देवता की पूजा करते आ रहें हैं। किसी भी परिवार में खुशी के मौके पर वो चाहे जन्म का हो या फिर विवाह का या फिर कोई अन्य मांगलिक कार्य, सभी में कुलदेवी या देवता के स्थान पर सभी परिवार वाले जाकर पूजा करते है। जबकि इसके अलावा भी एक निश्चित दिन परिवार के सभी सदस्य व संबंधित कुल के लोग अपने देवी देवता के स्थान पर एकत्रित होते है। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी है हमारे समाज में जिन्हें अपने कुलदेवी और देवता के बारे में जानकारी नहीं है या भूल गए हैं, वे अपने कुल की शाखा और जड़ों से पूर्ण रूप से कट गए है।
सवाल यह है कि कुल देवता और कुलदेवी सभी के अलग-अलग क्यों होते हैं? इसका उत्तर यह है कि कुल अलग है, तो स्वाभाविक है कि कुलदेवी-देवता भी-अलग अलग ही होंगे। दरअसल, हजारों वर्षों से अपने कुल को संगठित करने और उसके इतिहास को संरक्षित करने के लिए ही कुलदेवी और देवताओं को एक निश्चित स्थान पर नियुक्त किया जाता था। वह स्थान उस वंश या कुल के लोगों का मूल स्थान होता था।
मान लो कोई व्यक्ति गुजरात में रहता है लेकिन उसके कुलदेवी और देवता राजस्थान के किसी स्थान पर हैं। यदि उस व्यक्ति को यह मालूम है कि मेरे कुलदेवी और देवता उक्त स्थान पर हैं, तो वह वहां जाकर अपने कुल के लोगों से मिल सकता है। वहां हजारों लोग किसी खास दिन इक_ा होते हैं। इसका मतलब है कि वे हजारों लोग आप ही के कुल के हैं। हालांकि कुछ स्थान इतने प्रसिद्ध हो गए हैं कि वहां दूसरे कुल के लोग भी दर्शन करने आते हैं।
उदाहरणार्थ आपके परदादा के परदादा ने किसी दौर में कहीं से किसी भी कारणवश पलायन करके जब किसी दूसरी जगह रैन-बसेरा बसाया होगा तो निश्चित ही उन्होंने वहां पर एक छोटा सा मंदिर बनाया होगा, जहां पर आपके कुलदेवी और देवता की मूर्तियां रखी होंगी। सभी उस मंदिर से जुड़े रहकर यह जानते थे कि हमारे कुल का मूल क्या है catalunyafarm.com/?यह उस दौर की बात है, जब लोगों को आक्रांताओं से बचने के लिए एक शहर से दूसरे शहर या एक राज्य से दूसरे राज्य में पलायन करना होता था। ऐसे में वे अपने साथ अपने कुल और जाति के लोगों को संगठित और बचाए रखने के लिए वे एक जगह ऐसा मंदिर बनाते थे, जहां पर कि उनके कुल के बिखरे हुए लोग इकट्टा हो सकें।
पहले यह होता था कि मंदिर से जुड़े व्यक्ति के पास एक बड़ी-सी पोथी होती थी जिसमें वह उन लोगों के नाम, पते और गोत्र दर्ज करता था, जो आकर दर्ज करवाते थे। इस तरह एक ही कुल के लोगों का एक डाटा तैयार हो जाता था। यह कार्य वैसा ही था, जैसा कि गंगा किनारे बैठा तीर्थ पुरोहित या पंडे आपके कुल और गोत्र का नाम दर्ज करते हैं। आपको अपने परदादा के परदादा का नाम नहीं मालूम होगा लेकिन उन तीर्थ पुरोहित के पास आपके पूर्वजों के नाम लिखे होते हैं।
इसी तरह कुलदेवी और देवता आपको आपके पूर्वजों से ही नहीं जोड़ते बल्कि वह वर्तमान में जिंदा आपके कुल खानदान के हजारों अनजान लोगों से भी मिलने का जरिया भी बनते हैं। इसीलिए कुलदेवी और कुल देवता को पूजने का महत्व है। इससे आप अपने वंशवृक्ष से जुड़े रहते हैं और यदि यह सत्य है कि आत्मा होती है और पूर्वज होते हैं, तो वे भी आपको कहीं से देख रहे होते हैं। उन्हें यह देखकर अच्छा लगता है और वे आपको ढेर सारे आशीर्वाद देते हैं।
अब फिर से समझें कि प्रत्येक हिन्दू परिवार किसी न किसी देवी, देवता या ऋषि के वंशज से संबंधित है। उसके गोत्र से यह पता चलता है कि वह किस वंश से संबधित है। मान लीजिए किसी व्यक्ति का गोत्र भारद्वाज है तो वह भारद्वाज ऋषि की संतान है। कालांतर में भारद्वाज के कुल में ही आगे चलकर कोई व्यक्ति हुआ और उसने अपने नाम से कुल चलाया, तो उस कुल को उस नाम से लोग जानने लगे। इस तरह हमें भारद्वाज गोत्र के लोग सभी जाति और समाज में मिल जाएंगे।
हर जाति वर्ग, किसी न किसी ऋषि की संतान है और उन मूल ऋषि से उत्पन्न संतान के लिए वे ऋषि या ऋषि पत्नी कुलदेव व कुलदेवी के रूप में पूज्य हैं। इसके अलावा किसी कुल के पूर्वजों के खानदान के वरिष्ठों ने अपने लिए उपयुक्त कुल देवता अथवा कुलदेवी का चुनाव कर उन्हें पूजित करना शुरू किया और उसके लिए एक निश्चित जगह एक मंदिर बनवाया ताकि एक आध्यात्मिक और पारलौकिक शक्ति से उनका कुल जुड़ा रहे और वहां से उसकी रक्षा होती रहे।
कुलदेवी या देवता कुल या वंश के रक्षक देवी-देवता होते हैं। ये घर-परिवार या वंश-परंपरा के प्रथम पूज्य तथा मूल अधिकारी देव होते हैं। इनकी गणना हमारे घर के बुजुर्ग सदस्यों जैसी होती है। अत: प्रत्येक कार्य में इन्हें याद करना जरूरी होता है। इनका प्रभाव इतना महत्वपूर्ण होता है कि यदि ये रुष्ट हो जाएं तो हनुमानजी के अलावा अन्य कोई देवी या देवता इनके दुष्प्रभाव या हानि को कम नहीं कर सकता या रोक नहीं लगा सकता। इसे यूं समझें कि यदि घर का मुखिया पिताजी या माताजी आपसे नाराज हों, तो पड़ोस के या बाहर का कोई भी आपके भले के लिए आपके घर में प्रवेश नहीं कर सकता, क्योंकि वे ‘बाहरी’ होते हैं। गीता में इस संबंध में विस्तार से उल्लेख मिलता है कि कुल का नाश कैसा होता है?
ऐसे अनेक परिवार हैं जिन्हें अपने कुलदेवी या देवता के बारे में कुछ भी नहीं मालूम है। ऐसा इसलिए कि उन्होंने कुलदेवी या देवताओं के स्थान पर जाना ही नहीं छोड़ा बल्कि उनकी पूजा भी बंद कर दी है। लेकिन उनके पूर्वज और उनके देवता उन्हें बराबर देख रहे होते हैं। यदि किसी को अपने कुलदेवी और देवताओं के बारे में नहीं मालूम है, तो उन्हें अपने बड़े-बुजुर्गों, रिश्तेदारों या पंडितों से पूछकर इसकी जानकारी लेना चाहिए। यह जानने की कोशिश करना चाहिए कि झडूला, मुंडन संकार आपके गोत्र परंपरानुसार कहां होता है या ‘जात’ कहां दी जाती है। यह भी कि विवाह के बाद एक अंतिम फेरा (5, 6, 7वां) कहां होता है?
कहते हैं कि कालांतर में परिवारों के एक स्थान से दूसरे स्थानों पर स्थानांतरित होने, धर्म परिवर्तन करने, आक्रांताओं के भय से विस्थापित होने, जानकार व्यक्ति के असमय मृत होने, संस्कारों का क्षय होने, विजातीयता पनपने, पाश्चात्य मानसिकता के पनपने और नए विचारों के संतों की संगत के ज्ञानभ्रम में उलझकर लोग अपने कुल खानदान के कुलदेवी और देवताओं को भूलकर अपने वंश का इतिहास भी भूल गए हैं। खासकर यह प्रवृत्ति शहरों में देखने को ज्यादा मिलती है।
ऐसा भी देखने में आया है कि कुल देवी-देवता की पूजा छोडऩे के बाद कुछ वर्षों तक तो कोई खास परिवर्तन नहीं होता, लेकिन जब देवताओं का सुरक्षा चक्र हटता है तो परिवार में घटनाओं और दुर्घटनाओं का दौर शुरू हो जाता है, उन्नति रुकने लगती है, गृहकलह, उपद्रव व अशांति आदि शुरू हो जाती हैं। आगे वंश नहीं चल पाता है। पिताद्रोही होकर व्यक्ति अपने वंश को नष्ट कर लेता है!