इसका मतलब मन ही दुखों का कारण है यदि हाँ तो फ़िर परमात्मा ने इसे बनाया क्यो ? परमात्मा तो कोई गलत विषय वस्तु बनाता ही नही है इसका मतलब हमारे समझने मे कहीं भेद है। जो जितना गलत होता है उसके ठीक होने के भी उतने ही chance है। अब फ़िर से समझते है मन की कार्य शैली को। ये तो सत्य है कि दुख मालिक देता है और गुलाम झेलता है तो फ़िर कही ऐसा तो नहींं कि मन मालिक हो और हम उसके गुलाम। अगर ऐसा है तो दुख मिलना तय है।
अब दूसरे प्रकार से देखते है कि यदि हम मालिक हो जाये और मन हमारा गुलाम तो फ़िर स्थिति कैसी होगी। अब शायद मन हमे दुख नही दे पायेगा। मन को समाप्त नही किया जा सकता और करने की सोचनी भी नही चाहिये क्योंकि इसे भी परमात्मा ने ही बनाया है। हमे सिर्फ अपना किरदार बदलना पड़ेगा दूसरे शब्दों मे कहे तो बदलना नही है बल्कि वास्तविकता से पर्दा हटाना है क्योंकि जन्म तो मालिक बनकर ही लिया था लेकिन बाद मे समाज के सम्पर्क मे आकर वास्तविकता पर पर्दे डलते चले गये और हम मन के अधीन हो गये बाकी सब को देखकर।
अब सवाल उठता है कि उस मालिकाना हक को कैसे प्राप्त करे तो तरीका एक ही है कि जिस सीढ़ी से चढ़े है उसी से उतरना पड़ेगा यानि एक एक कर समझना पड़ेगा जैसे कि मन को कैसे एक स्तर तक शांत करे और ये होगा ध्यान से।
जैसे जैसे मन शांत होता जायेगा वैसे वैसे वास्नाए भी समझ मे आनी शुरु हो जाएंगी जैसे कि अहंकार क्या है क्यों है किस लिए है इससे क्या पाया और क्या खोया । क्या इसके बिना भी जीवन हो सकता है यदि हाँ तो कैसा होगा। हम अहंकार के जितने अंदर तक घुसेंगे उतना ही समझना आसान होगा और समझ ही विमुक्ती का द्वार है।
ये उपर लिखा सब हम सब के लिए theory है अब इस का प्रैक्टिकल करके देखते है। जितनी ईमानदारी से करेंगे नतीजे उतने ही बेहतर होंगे।
सुशील ढाका